सोचता हूं अक्सर, क्या करू क्या ना करू मैं
किसके लिए जीऊ, किसके लिए मरू मैं
ऐ खुदा तुने दुनिया का लगाया अजब सा मेला
जहां हजार रिश्तों मे बंधा इंसा
जब पैदा होता है तो अकेला, और मरता भी है अकेला
दुनिया के इस मेले में सारा दिन भटकता हूं
लोगों के चेहरे को तकता हूं
पाता हूं हर चेहरे पे चेहरा है
हर किसी पे बुराईयों का सेहरा है
ये सेहरा हर दिन ऊंचा हो रहा है
लोगों का दिल गंदे से गंदा हो रहा है
इस गंदगी से बचने के लिए
सोचता हूं अक्सर, क्या करु, क्या ना करू मैं
किसके लिए जीऊ, किसके लिए मरू मैं
इंसान के दिलो-दिमाग की गंदगी का ये आलम है कि
शराफत, इमान, नेकी, सच्चाई, ये सब बेकार की बाते लगती हैं
ऐसी राहों पर चलने वालों को ये दगाबाज दुनिया बेकूफी कहती है
झूठ, फरेब, हकतल्फी, मक्कारी जैसी बातों को दुनिया
होशियारी, चालाकी, दुनियादारी कहती है।
मेेरे खुदा, गर यही दुनियादारी है
तो फिर इससे दुनिया में फैली नफरत की आग को बुझा दो ना
इंसान और इंसानियत को इस आग से बचा लो ना
सरहद, मजहब और जात-पात के खंजर से
जख्मी दिलों मे जो नासूर बनके पल रहा है, उसे भर दो ना
तो खुदा ने कहा कि
मैने तो जमीन बनाई थी, सरहदें खींच कर रंजिश तूने फैलाया
उस जमी में मैने हजार नेमतें दी, उससे ख़जर, बंदूक, तोप, बारूद तुमने बनाया
मैने तो तुम्हे, महज इंसान बनाया था, धर्म, जात-पात की नफरत तो तुने उगाया
ये सरहद, ये मजहब, ये जात ये पात
ये सब तो तेरा ही बनाया जाल है,
और तू मुझसे ही पूछता सवाल है
ये सबकुछ समझते समझते , जब खुद पर नजर पड़ी
तब तक मैं भी सन चूका था ऐसी ही गंदगी से
अंदर से ये आवाज आई, अब किससे क्या कहूं मैं
किसके लिए जीऊ, किसके लिए मरू मैं