बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरण के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं। चुनावों में टिकट बंटवारे से लेकर सत्ता में आने के बाद योजनाएं बनवाने तक, पार्टियां अपने पसंदीदा जातियों का खयाल रखना नहीं भूलती है। मौजूदा सीएम नीतीश कुमार हो या पूर्व सीएम लालू यादव सभी ने अपने जातीय बिसात बिछा कर यहां की राजनीति को खूब निचोड़ा है। कभी 80-90 के दशक तक सवर्णों के वर्चस्व वाली बिहार की राजनीति में आज पिछड़ों का दबदबा है। चाहे सरकार किसी की भी हो, पिछड़ों की अहम भूमिका रहती है। बिहार की जातीय समीकरण देखें तो करीब 20 फीसदी अगड़ी जातियां हैं, जिसमें राजपूतों की संख्या सबसे अधिक हैं। ब्रह्मण और भूमिहार भी अच्छी तादाद में है। मुसलमान और दलित समुदाय की आबादी करीब 15-15 फीसदी है। ओबीसी में सबसे ज्यादा यादवों की संख्या है जो करीब 14 फीसदी हैं। राजनेतिक पार्टियों की बात करे तो मुस्लिम और यादव (MY) को आरजेडी अपना वोट बैंक मानती है। स्वर्गीय राम विलाश पासवान की पार्टी LJP और जीतन राम मांझी की HUM दलितों पर पकड़ रखती है। मलाह के लिए मुकेश साहनी, तो कुशवाहा जाती के लिए उपेन्द्र कुशवाहा जैसे नेता है। सवर्णों का भरोसा बीजेपी पर रहता है। तो यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या नीतीश कुमार की कोई जातीय वोट बैंक नहीं है? ख़ैर ऐसा कहना ग़लत होगा कयोंकी नीतीश कुमार बिहार के राजनीति के वो चाणक्य है जिन्होंने इन जातीय समीकरणों को सर के बल खड़ा दिया। कुमार ने बिहार की राजनीति में महादलित की थ्योरी उत्पन कर दी। जातीय गोलबंदी सुशासन बाबू ने अपनी पहली ही सरकार में दलित श्रेणी से महादलित अलग कर नई श्रेणी बना दी। ओबीसी यानी पिछड़े वर्ग से ईबीसी यानी अति पिछड़े वर्ग को निकाल दिया और ये लिस्ट लंबी होती गई। साल 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने ब्राह्मणों में एक उप-जाति गिरी को ओबीसी लिस्ट में डाला। बिहार में तकरीबन 25 लाख गिरी हैं जो मूल रूप से छपरा, मोतिहारी और सिवान में रहते हैं। हालांकि कुछ और राज्यों में भी गिरी ओबीसी लिस्ट में डाले गए है। मुसलमानों में एक जाति कुलहैया को अति पिछड़ी जाति में डाला था। अररिया, पूर्णिया, किशनगंज में 20 लाख के क़रीब कुलहैया हैं। राजबंशी को भी अति पिछड़े वर्ग में डाला गया। रविदास जाति को महादलित वर्ग में डाला और इस तरह कई छोटी-छोटी जातियां जेडीयू के पाले में जाती रहीं। इस तरीके से जदयू ने सभी जातियों में सेंध लगा दी। इस सब के साथ साथ नीतीश कुमार को महिलाओ का भी भरपूर साथ मिलता आ रहा है। महिला वोट बैंक - भले ही एग्जिट पोल और मैन स्ट्रीम मीडिया डिबेट में महिला वोटरों पर बात ना हो पर यह तबका नीतीश कुमार के बहुत बड़े वोट बैंक का हिस्सा है। नीतीश कुमार ने अपने पहले कार्यकाल से ही महिलाओं को सरकारी नौकरियां और कामकाज में भागीदारी देनी शुरू कर दी थी। पहले सरकार ने महिलाओं को पंचायती राज संस्थाओं और नगर निकायों में 50 प्रतिशत आरक्षण कर दिया फिर बड़ी संख्या में आशा कार्यर्ताओं की न्युक्ति की गई। लड़कियों के लिए अच्छी शिक्षा व्यवस्था की गई, साइकिल और उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहन राशि दिया गया। पुलिस बल में बड़े पैमाने पर महिलाओं की भर्ती की गई जिससे बिहार पुलिस में महिला और पुरुष का अनुपात बेहतर हुआ। एक करोड़ 20 लाख महिलाओं को जीविका समूह से जोड़ा गया। शराब बंदी करना बहुत कारगर साबित हुआ। घर में हिंसा झेल रही महलियाओं को बड़ी राहत मिली। इन सब कामों से नीतीश का एक अलग महिलाओं का वोटबैंक बन चुका है जिसे तोड़ पाना किसी पार्टी के लिए आसान नहीं है। बिहार की राजनीति में आने वाले सालों में जो भी वो भविष्य के गर्भ में है। मगर इतना तय है