तीरंदाजी की दुनिया में दीपिका की उपलब्धियों की रौशनी से आज झारखंड ही नहीं पूरा देश रौशन हो गया है. हर चेहरे पर खुशी है. लेकिन दीपिका के लिए शुरुआत आसान नहीं था. ऑटो चलाने वाले पिता के लिए अपनी बेटी के सपनों को पूरा करना आसमान से ताड़े तोड़ लाने जैसा था. लेकिन, बेटी की जिद के आगे उन्होंने हथियार डाल दिए और वर्ष 2005 में रांची से करीब 220 किलोमीटर दूर सरायकेला-खरसांवा के एक गांव में चलाए जा रहे उस आर्चरी सेंटर में पहुंच गए, जहां आर्चरी के आधुनिक स्वरूप से दीपिका का पहला परिचय हुआ.हालांकि आर्चरी का महंगा एक्विपमेंट उनके ऑटो चलाने वाले पिता और नर्स मां की हिम्मत तोड़ने के लिए काफी थी. उसपर से बचपन में बेहद दुबली पतली दीपिका के लिए निशाना साधना तो दूर धनुष उठाना भी मुश्किल था. लेकिन, माता-पिता को अपनी बेटी की प्रतिभा पर भरोसा था. वे अर्जुन मुंडा और उनकी पत्नी मीरा मुंडा द्वारा चलायी जा रही तीरंदाजी अकादमी में बेटी को लेकर पहुंचे. यहां से दीपिका की प्रतिभा में निखार आने लगा. एक बार जब दीपिका ने सफलता का स्वाद चखा तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. हर बीतते दिन के साथ दीपिका की खाते में नई उपलब्धियां जुड़ती चली गयीं और उनके आलमारी में नया मेडल सजता चला गया. शर्मीली सी दीपिका सफलता की सीड़ियां चढ़ती चली गयीं. रांची के मुख्य शहर से करीब 12 किलोमीटर दूर रातू की गलियों में आम लड़कियों की तरह सहेलियों के साथ ही दीपिका का बचपन बीता. लेकिन, वह शुरू से ही जिद्दी स्वभाव की रहीं. गरीब घर की यह लड़की बचपन में अपने निशाने साधने का शौक पत्थर से आम तोड़कर पूरा करती थीं. जाहिर है आज दीपिका जिस मुकाम पर हैं उसके पीछे उनके माता-पिता के त्याग और परिश्रम का बहुत बड़ा हाथ है.