उत्तर प्रदेश की राजनीतिक सियासत का पूरे देश में बोलबाला है. जाति विशेष के नाम पर बटे वोट बैंक पर राजनीति करने वाले प्रदेश में एक बार फिर से अटकलबाज़ियों और चर्चाओं का माहौल है क्योंकि विधानसभा चुनाव जो करीब है. इन सब के बीच विपक्ष दल खामोश नज़र आ रहा है. सपा ने थोड़ी बहुत हलचल तो दिखाई है लेकिन बसपा का काफी लंबे समय से गतिविधियों का बाजार ठंडा पड़ा है. उत्तर प्रदेश की राजनीति से निकलकर पूरे देश पर छाने का सपना देखने वाली बसपा के सितारे गर्त में चल रहे हैं. 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा यानि बहुजन समाज पार्टी अब अपने अस्तित्व को तलाशने में कहीं गायब सी हो गई है.
बसपा का अस्तित्व
पिछले विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद बसपा मानो गायब सी हो गई है. देश में जहां कोरोना की दूसरी लहर के दौर में बसपा जमीन पर नज़र ही नहीं आई यहां तक कि कोई नेता भी रूलिंग पार्टी पर सवाल उठाता नज़र नहीं आया. वहीं देश में कृषि कानून पर मचे बवाल पर बसपा का विरोध नहीं दिखा. हां कुछ मुद्दों पर बसपा की मुखिया मायावती का ट्वीट जरूर नज़र आ जाता था.
बसपा के खत्म होने का कारण
पहला कारण, पार्टी की पूरी की पूरी कमान मुखिया मायावती के हाथों में जिससे पार्टी के कई बड़े नेताओं में नाराजगी का सबब. यानि सुप्रीमो कल्चर और विचारधारा के स्तर पर कुछ समझौते करने की वजह से भी पार्टी बिखरती नजर आई और कई बड़े नेताओं ने बसपा का साथ छोड़ दिया. दूसरा कारण पार्टी का दलित वोट भी अब अपने मुखिया पर भरोसा न जताते हुए बटता नज़र आ रहा है. बसपा का सबसे ज्यादा वोट बैंक दलित समाज से है लेकिन उस वोट बैंक पर भी अब विश्वास नहीं रहा. अगला कारण बसपा के पास अन्य समाज या जाति का मजबूत वोट बैंक नहीं जिससे वो बहुमत से राज्य पर काबिज हो यानी ट्रांसफर वोट कराने की अब बसपा में वो बात नहीं.
फॉर्मूला हुआ फेल
2007 के विधानसभा चुनाव में जब मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला दिया था और पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी. दलितों और वंचितों की आवाज उठाने वाली बसपा आज लगातार कमजोर होती चली जा रही है. अब सवाल यह है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में मायावती कैसे बसपा की नैया को पार लगाएंगी.